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जीवन प्रभात का बचपन

जीवन प्रभात का है बचपन, 
भू-रज में जो खेल रहा।
तृष्णा बस नीर का होता, 
वक्र-रव मुख से बोल रहा।
किसलय की कोमलता पग में,
मंद गति से डोल रहा।
अचल भौतिक लिप्सा है, 
प्रकृति में चक्षु खोल रहा।

लोलुपता हृदय के बाहर, 
निज निश्चल का स्वभाव रहे।
चंचलता तन-मन में बसती
जगदीश का हाव-भाव रहे।
अवयव विकट बिटप का, 
अनुपम प्रवाल-सा अंग रहे।
अरुण लालिमा आनन में, 
सस्मित चित्त उर-अंतर रहे।

अशेष आनंद इस अवसर में,
पर्यन्त लुप्त हो जाता है।
वामावर्त की ये रेखा है, 
लौट ना फिर वापस आता है।
पंकज की वो कलियाँ है, 
जिसे देख मन मुस्काता है।
बीती है जो बचपन अपना, 
स्मृति-पटल से आता है।

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3 Comments

Sneh lata pandey

12-Jun-2021 09:09 PM

सच कहा भाई आपने, बचपन बहुत सुनहरा होता है

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Kumawat Meenakshi Meera

26-May-2021 06:29 PM

Nice

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NEELAM GUPTA

11-Apr-2021 06:47 AM

बहुत सुन्दर

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